नागरिकता संशोधन बिल को 2016 में संसद में पेश किया गया। दिसंबर, 2019 में लोकसभा और राज्यसभा में पारित किया गया। जाहिर है कि कानून बनाने की पटकथा को अंतिम रूप दे दिया गया, लेकिन 4 साल 3 माह की लंबी अवधि के बाद कानून की अधिसूचना तब जारी की गई, जब आम चुनाव की घोषणा कुछ दिन बाद होने ही वाली थी। इस संदर्भ में अधिसूचना के समय पर कठोर सवाल किए जाने स्वाभाविक हैं। अधिनियम के नियम, उसकी पात्रता और शर्तें आदि तय करने में इतना लंबा वक्त गुजार दिया गया, यह वाकई आश्चर्यजनक स्थिति है। अब एक तरफ नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) की अधिसूचना जारी की गई है, तो दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने इस कानून को अपने राज्य में लागू करने से इंकार कर दिया है। उप्र की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी यह बयान दिया है कि पहले सभी संशयों और असमंजस को दूर कर लेना चाहिए था। वैसे किसी भी मुख्यमंत्री को यह क्षेत्राधिकार नहीं है कि संसद द्वारा पारित और भारत सरकार द्वारा अधिसूचित किसी कानून को लागू करने से स्पष्ट इंकार कर सके। यह परोक्ष रूप से संघीय टकराव की स्थिति है, जिस पर सर्वाेच्च अदालत की संविधान पीठ को फैसला देना पड़ सकता है। सीएए को ध्रुवीकरण अथवा मुस्लिम-विरोध का नागरिक शास्त्र कहा जा सकता है, जो एक निश्चित हद तक 2024 के आम चुनाव को प्रभावित करेगा। वैसे इसमें भी अर्द्धसत्य ही है।
बेशक पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के पीड़ित, अत्याचारों को झेलते उन देशों के घोर अल्पसंख्यकों-हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी-को ही भारत की नागरिकता मुहैया कराने की व्यवस्था सीएए में की गई है, लिहाजा भाजपा अपने जनाधार में ध्रुवीकरण करा चुनावी फायदा उठा सकती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा इसका सफल प्रयोग बंगाल में कर चुकी है। विरोधियों की आशंका, उनके असमंजस और डर बयां किए जा रहे हैं कि सीएए का लिंक एनआरसी से है। सीएए के जरिए मुसलमानों के एक तबके की नागरिकता छीनी जा सकती है। ऐसी दलीलें महज अफवाहें हैं और देश में विभाजनकारी हालात पैदा करने को विरोध किया जा रहा है। असम, मेघालय, त्रिपुरा में कुछ संगठन आंदोलित हो चुके हैं। याद रहे कि राजधानी दिल्ली के ‘शाहीन बाग’ इलाके में इसी मुद्दे पर मुसलमानों ने 100 दिन का आंदोलन चलाया था और बाद में पूर्वाेत्तर दिल्ली में दंगे भी भडक़े थे, लिहाजा सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किए जा रहे हैं। सुरक्षा बलों ने ‘फ्लैग मार्च’ तक निकाला है। फिलहाल करीब 18 लाख 74000 आवेदन इन तीनों पड़ोसी देशों से आ चुके हैं। सबसे ज्यादा शरणार्थी 16.39 लाख पाकिस्तान से आए हैं या आना चाहते हैं। पाकिस्तान में हिंदू आदि अल्पसंख्यक 1.18 फीसदी, बांग्लादेश में 8.5 फीसदी और अफगानिस्तान में मात्र 0.04 फीसदी हैं। उनके लिए भारत ‘मानवतावादी धार्मिक संरक्षक देश’ है। ये तीनों इस्लामी देश हैं, लिहाजा कानून में मुसलमानों की नागरिकता का कोई भी प्रावधान नहीं है। गौरतलब यह भी है कि नागरिकता का ऐसा कानून 1955 से हमारे देश में लागू है, जब जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे।
उसमें 6 संशोधन भी किए जा चुके हैं। मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 बना कर इसे व्यापकता दी है। पात्र शरणार्थी एक निश्चित वेबपोर्टल पर ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं। अधिकार प्राप्त समिति इस पर अंतिम फैसला लेगी। इसके प्रमुख निदेशक (जनगणना) होंगे और 7 अन्य सदस्य भी समिति में होंगे। कानून के नियमों में स्पष्ट उल्लेख है कि सीएए में नागरिकता छीनने का प्रावधान नहीं है। वैसे भी संविधान में उल्लेख है कि भारत के किसी भी नागरिक की नागरिकता छीनी नहीं जा सकती। आज जो सीएए विरोधी राजनीतिक प्रदर्शन किए जा रहे हैं, वे हिंदू-मुसलमान की सियासत ही है, ताकि इस मुद्दे पर ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम वोट बटोरे जा सकें। हिंदू आदि का अधिकतम धु्रवीकरण भाजपा के पक्ष में होना चाहिए। इस कानून का विरोध जायज नहीं लगता।